Monday, April 29, 2024
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मंत्रिमंडल में नए चिराग के जलने से क्या होगा NDA को लाभ ?

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भाजपा गठबंधन में बेशक न हों पर उन्हीं की सियासी ताकत का डर है कि बेचारे चंद्रबाबू नायडू को एकतरफा समर्थन करके भी राजग में दाखिला नहीं मिल पा रहा।

CM पर 31 क्रिमिनल केस , 2014 से आंध्र प्रदेश में कब्जा , जगनमोहन रेड्डी के घर क्यों नहीं जातीं ED , CBI एजेंसियां

हैदराबाद । National politics News । राज्यसभा में जिसकी लाठी, उसकी भैंस तो पुरानी कहावत ठहरी। पर, सियासत में जिसकी ज्यादा ताकत, उसी की होती है ज्यादा पूछ। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी इस मायने में किस्मत के धनी ठहरे। सूबे में एकछत्र राज है तभी तो विरोधी होते हुए भी भाजपा सिर आंखों पर बिठाती है। जगनमोहन के खिलाफ तमाम गंभीर आरोपों वाले 31 आपराधिक मामले दर्ज हैं तो क्या ? वे 2014 से लगातार सूबे के मुख्यमंत्री हैं ।

175 सदस्यों वाली विधानसभा में उनके 147 विधायक हैं। विधान परिषद में भी पूरा वर्चस्व है। कुल 58 में से 47 सदस्य उन्हीं की पार्टी के हैं। रही संसद की बात तो 2019 में 25 में से लोकसभा की 22 सीटें जीतकर वे दिल्ली के सत्ता समीकरणों के लिए भी अहम बन गए। वाजपेयी सरकार के दौरान राजग के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू की पार्टी को तो महज तीन सीटें ही मिली थीं।

हर संकट पर केंद्र सरकार का राज्यसभा में खुला समर्थन करते रहे जगनमोहन

भाजपा और कांग्रेस का तो खाता तक नहीं खुल पाया था। राज्यसभा में भी नौ सदस्य हैं जगनमोहन के। संकट के हर मौके पर केंद्र की सरकार का राज्यसभा में खुला समर्थन करते रहे हैं जगनमोहन। हालांकि, सूबे की सियासत में भाजपा से दूरी का मंत्र अपनाया है। पिछले पांच साल में ईडी, सीबीआइ और आयकर जैसी एजंसियां जगनमोहन के दर पर एक बार भी नहीं फटकी।

उल्टे पिछले दिनों दिल्ली आए तो प्रधानमंत्री ने गले लगाकर ऐसा स्वागत किया जैसा कभी किसी भाजपाई मुख्यमंत्री का भी शायद ही किया हो। आंध्र के लिए खास दरियादिली भी दिखाई और 23 हजार करोड़ रुपए का पैकेज दे दिया। भाजपा गठबंधन में बेशक न हों पर उन्हीं की सियासी ताकत का डर है कि बेचारे चंद्रबाबू नायडू को एकतरफा समर्थन करके भी राजग में दाखिला नहीं मिल पा रहा।

किस ओर जयंत चौधरी?

लगता है कि जयंत चौधरी एक साथ दो नावों की सवारी कर रहे हैं। पिछला लोकसभा और विधानसभा चुनाव उन्होंने समाजवादी पार्टी से मिलकर लड़ा था। लोकसभा में खाता नहीं खुल पाया था। विधानसभा में जरूर आठ सीटों पर सफलता मिल गई थी रालोद के मुखिया को। एक सीट बाद में खतौली उपचुनाव की जीत से खाते में आई थी। गठबंधन बनाए रखने के लिए अखिलेश यादव ने बड़ा दिल दिखाया था। अपनी पत्नी डिंपल यादव की उम्मीदवारी वापस लेकर अपने विधायकों के बूते जयंत को राज्यसभा भेज दिया था।

सपा का साथ देने की जगह जयंत भाजपा से भी कर रहे सौदेबाजी!

हालांकि जयंत ने उसे कभी भी अखिलेश का अहसान नहीं माना। बात विपक्षी गठबंधन की शुरू हुई तो खुलकर सपा का साथ देने की जगह जयंत भाजपा से भी सौदेबाजी में जुट गए। बीच में अटकलें भी लगी कि भाजपा उन्हें केंद्र में मंत्री-पद की पेशकश कर रही है। पटना की बैठक में जयंत के नहीं पहुंचने से इन अटकलों को बल मिला। उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी ने बयान भी दिया कि जयंत आना चाहें तो उनका स्वागत है। इसके बाद बंगलुरु की बैठक में शामिल हो जयंत ने संदेश दिया कि वे भाजपा विरोधी गठबंधन के साथ हैं। लेकिन, राज्यसभा में दिल्ली विधेयक पर हुए मतदान से जयंत का नदारद रहना फिर अटकलों को बल दे गया।

उनकी पार्टी के प्रवक्ता अनिल दुबे ने सफाई दी कि जयंत की पत्नी चारू चौधरी बीमार थीं। उनकी देखभाल के कारण जयंत राज्यसभा नहीं पहुंच पाए। हालांकि, जयंत ने खुद अभी तक भी जुबान नहीं खोली है। अलबत्ता उनकी पार्टी के नौ में से आठ विधायक इसी हफ्ते लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ चाय पीने उनके घर पहुंच गए। नवें विधायक गुलाम मोहम्मद मूलत: सपाई ठहरे, सो नहीं गए। जयंत के निजी सचिव समरपाल सिंह सफाई दे रहे हैं कि विधायक तो गन्ना किसानों के भुगतान की असली हकीकत बताने गए थे मुख्यमंत्री के पास। लेकिन, सवाल तो यह है कि विधानसभा सत्र के दौरान तो गन्ना किसानों के भुगतान की बात सदन के भीतर भी की जा सकती थी। परिस्थितियां तो यही संकेत दे रही हैं कि दाल में कुछ तो काला जरूर है।

फेरबदल की आस पर अटका कुनबा

केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल की अटकलें कुछ ज्यादा ही गरम थी। कहा जा रहा था कि राजग के कुनबे को बढ़ाने के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यह इस दौर का आखिरी फेरबदल होगा। चर्चा तो संसद सत्र से पहले ही कुछ नए मंत्रियों को शामिल किए जाने की चली थी। एनसीपी के बागी नेता प्रफुल्ल पटेल को मंत्री बनाए जाने का तो हर कोई दावा कर रहा था। चर्चा जयंत चौधरी के नाम की भी चली थी। हल्ला बोल चिराग पासवान की तरफ से भी था। कथित सूत्रों ने उनका बस शपथ-ग्रहण नहीं करवाया था। लेकिन सब हवा-हवाई निकला। लोकसभा चुनाव में अब वैसे भी ज्यादा वक्त बचा कहां है?

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कथित सूत्र तो इस साल होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव से भी जोड़ रहे थे संभावित विस्तार या इसे फेरबदल जो भी कहें, उससे। लेकिन अब लाबिंग भी नहीं दिख रही और कोई सुगबुगाहट भी नहीं। लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त बचा भी कहां है? छह महीने मान सकते हैं। इतने कम समय के लिए किसी को हटाने या बनाने का कोई कारगर असर भी तो नहीं होता। देखते हैं मंत्रिमंडल में नए चिराग के जलने की आस पूरी हो भी पाती है या नहीं।

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