लखनऊ। वर्तमान सरकार अपने शुरुआती दिनों से ही राजनीतिक संरक्षण प्राप्त बाहुबलियों के खिलाफ कार्यवाही करते हुये उन्हें सलाखों के या तो पीछे पहुंचा दिया या फिर ठोक पीट कर सही रास्ते पर कर दिया ।परन्तु राजनीतिक गलियारों में एक विचार यह भी पूरे पांच साल तक गूंजता रहा कि सरकार की यह कार्यवाही एक विशेष समुदाय तक सीमित रही और वर्तमान राजनीतिक संरक्षण में एक विशेष समुदाय से ताल्लुक रखने वाले बाहुबलियों को राजनीतिक संरक्षण में बढ़ावा दिया जाता रहा है।अब जब विधानसभा चुनाव 2022 का बिगुल बज चुका है तो पिछले पांच साल के राजनीतिक संरक्षण में इन नए उभरते बाहुबलियों को राजनीति में इंट्री कराने के लिए वर्तमान सत्ताधारी दल ने अपने राजनीतिक सहयोगियों के रास्ते राजनीति में इंट्री की जुगत में लग गया है और इसके लिए बाकायदा उन जिलों को चुना गया है जिन जिलों में खनन व्यवसाय चल रहा है।
यहाँ आपको बताते चलें कि कौशाम्बी से लेकर फतेहपुर के रास्ते कानपुर तक और उत्तर प्रदेश के खनन उद्योग में विशेष महत्व रखने वाले सोनभद्र तक यह नजारा देखा जा सकता है। जानकारों के मुताबिक खनन क्षेत्र पर राजनीतिक शक्ति के बिना दबदबा कायम रखना मुश्किल होता है यही वजह है कि इन खनन उद्योगों वाले जिलों में राजनीतिक दबदबे को लेकर राजनीतिक पार्टियों में हमेशा से खास दिलचस्पी होती है यही वजह है कि इन जिलों की विधायी सीटों पर हमेशा से ही मारा मारी रही है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश के खनन उद्योग पर एक विशेष वर्ग को राजनीतिक सरंक्षण मिलने के स्पष्ट संकेत हैं और यही वजह रही कि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त यह वर्ग अब सीधे राजनीति में प्रवेश की तैयारी में है। राजनीतिक संरक्षण प्राप्त नया उभरता यह वर्ग राजनीति में इंट्री के लिए सत्ता की साझेदार रही पार्टियों को चुना है और राजनीति के जानकारों की मानें तो इन नए उभरते बाहुबलियों को वर्तमान सत्ता के नज़दीकियों का फायदा पहुंच रहा है।
चूंकि सत्ता की साझेदार इन पार्टियों में टिकट बटवारा का एक ही कामचलाऊ फार्मूला है कि पार्टी में जो अधिक चंदा देगा अधिकांश टिकट उन्हीं को मिलता है ।ऐसे में इन राजनीतिक संरक्षण प्राप्त इन नए बाहुबलियों को इन पार्टियों में घुसकर टिकट लेने में कोई परेशानी नहीं होती है।
यहां आपको यह भी बताते चलें कि इन सत्ता में साझेदार इन छोटी पार्टियों के लिए उनके कैडर बेस कार्यकर्ताओं का कोई मतलब नहीं होता ।यह पार्टियां सत्ता प्रतिष्ठान से सौदा कर अपने हिस्से में जो भी सीट पाती हैं उनमें से अधिकांश पर दूसरे दलों से या तो टिकट कटे प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं या फिर उक्त सीटों की उचित कीमत चुकाकर कोई न कोई बाहुबली राजनीतिक शक्ति के लिए चुनाव मैदान में उतर जाता है।
फिलहाल यह कोई नई बात नहीं है यह खेल तो पुराना है फर्क बस यही है कि वर्तमान समय में बाहुबलियों की जाति बिरादरी बदल गयी है।पहले किसी अन्य समुदाय के लोगों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था तो सत्ता प्रतिष्ठान में जब परिवर्तन हुआ तो किसी दूसरे समुदाय को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो गया।