(समर सैम)
सोनभद्र। खनन माफिया गगनचुंबी पहाड़ों को तबतक नेस्तनाबूद करते रहे, जबतक की उसे पाताल में नहीं तब्दील कर दिया। इसके बाद भी बाकायदा पनचक्की लगाकर पाताल का पानी बाहर निकालकर खनन बदस्तूर जारी है। आखिर यह अंधेरगर्दी डीजीएमएस वाराणसी परिछेत्र को दिखाई क्यों नहीं पड़ रही। जबकि हर माह जांच का कोरम पूरा किया जाता है। बहुत कुछ अगर होता है तो सिर्फ नोटिस थमाकर इति श्री हासिल कर लिया जाता है। इसी वजह से खनन माफियाओं के हौसले बुलंद हैं। हरे भरे पहाड़ों के साथ हैवानियत पाताल बनाने के बाद भी थमने का नाम नहीं ले रही है।
बेदर्दी से अवैध खनन के चलते पाताल लोक में पहुंच चुकी खदानों में जलधारा फुट पड़ी है। दर्जनों खदाने ऐसी है, जिनकी अवधि बीत जाने के बाद भी अवैध खनन अंधाधुंध एवं बेतरतीब होता रहा। प्रकृति का हैवानियत भरा यह दोहन अभी तक बेरोकटोक बदस्तूर जारी है। बिल्ली मारकुंडी और रास पहाड़ी खनन सेक्टर की दर्जनों खदानें ऐसी है कि उसे बहुत अधिक गहरा खोद दिया गया है। फ़िलहाल यह गहरी खदानें विशालकाय जलाशय बन गई है। जिसमे पंप सेट लगाकर दिन रात पानी निकाला जा रहा है। खनन माफियाओं द्वारा बेरोकटोक खुलकर नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। खदानों में जमकर मानक से अधिक विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
वहीं कुछ खदानें ऐसी भी है, जिसे ग्राम समाज की भूमि होने पर भी पट्टा आवंटित कर दिया गया। कुछ खदानों की भूमि बाकायदा एससी एसटी के नाम पट्टा है। इसे भी खनन माफियाओं द्वारा कूट रचित दस्तावेज के आधार पर हथिया कर लीज करा लिया गया। फिर शुरू हुआ खुला खेल फरुक्काबादी। देखते ही देखते पहाड़ी की कोख में टनों बारूद भर कर उसकी मूल संरचना का पंचनामा कर दिया गया।
सूत्र बताते हैं कि इन खादानों में खनिज विभाग के कुछ कर्मचारी भी अघोषित पार्टनर हैं। रास पहाड़ी और बिल्ली मारकुंडी खनन बेल्ट में कुछ पत्थर की खदानें ऐसी भी है, जिसके सीमांकन का पिलर पैमाईश के नाम पर पुनः आगे बढ़ाकर गाड़ा गया है। गांधी जी के मोह में इस कारस्तानी को खनिज विभाग के दिशानिर्देशन में अंजाम दिया गया है। जनपद सोनभद्र में कहने को एक भी खदान ऐसी नहीं है, जो मानक को फुलफिल करती हो। साथ ही क्रेशर प्लांटों का भी यही हाल है। फर्जी परमिट के चलते क्रेशर संचालक किसी भी खदान से अवैध बोल्डर ले लेते हैं। 80 प्रतिशत क्रेशर प्लांट में पानी का फौव्वारा और छतरी नदारद है। फिज़ा में हर साल टनों धूलकण घोला जा रहा है। हरित पट्टिका के नाम पर कुपोषित इक्का दुक्का पेड़ पौधे इन प्लांटों पर उखड़ी उखड़ी सांसें लेते हुए मरणासन्न अवस्था में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हुए नज़र आ रहे हैं।
बोल्डर से गिट्टी पेराई के वक्त तक़रीबन सभी क्रशर प्लांटों के इर्द गिर्द फिज़ा में धूल का गुब्बार मटमैला बादलों का प्रतिबिंब नज़र आता है। यही धूल के गुब्बार लोगों को सांस के रोगी बना रहे हैं। लोगों की ज़िंदगी के डोर कम करते जा रहे हैं। पाताल बन चुकी बंद पड़ी पत्थर की खदानों को नियमतः पाटा जाना चाहिए था। परन्तु वास्तविकता के धरातल से यह नियम कोसो दूर नज़र आ रहा है। लगातार ऐसी खदानें दुर्घटना को दावत दे रही हैं। अक्सर पाताल लोक के जल से भरी इन खदानों में डूबने से ग्रामीणों और पशुओं की मौते भी होती रहती है। अब सरकार ही बताये कि बंद पड़ी खदानों में डूबकर मरने को हत्या माना जाये या महज़ हादसा। खनन सेक्टर में बंद पड़ी दर्जनों खदाने ऐसी है, जो पूरी तरह से मौत का कुंड बन चुकी है। 90 मीटर से भी अधिक गहरी खोद दिया गया है। जिसमें पाताललोक का पानी भरा हुआ है। अगर कुशल तैराक भी इस मौत के कुंड में गिर जाए तो उसका बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
रेड बुक में शामिल दुर्लभ किस्म के लुप्तप्राय जानवर भी गाहे बगाहे मौत के इस कुंड के चलते विस्मृति के गर्त में विलीन हो रहे हैं। अफसोस इसपर भी ज़िम्मेदार मोहकमा की कुम्भकर्णी नींद नहीं टूटती। बेतरतीब हो रहे खनन के कारण अक्सर इन खदानों में हादसे होते रहते हैं। इसपर भी मानवता शर्मसार नहीं होती। क्योंकि मरने वाले अधिकांशतः आदिवासी एवं निम्नवर्गीय श्रमिक होते हैं। पूरा सिस्टम दुर्घटना के बाद कुम्भकर्णी नींद से अचानक जागते ही मामले की लीपापोती में लग जाता है। उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं रहता कि मजदूरों के बेवा और यतीम बच्चों के मुस्तक़बिल का क्या होगा। सिस्टम सिर्फ मज़लूमों की ज़िन्दगी स्याह करने वाले पपिहा को बचाने में अपनी सारी कूवत लगा देता है।
मज़लूम मज़दूरों के लहू से सने खनन सिंडिकेट के धन दौलत की चमक के आगे सिस्टम को रतौंधी चाप लेती है। शायद सिस्टम की नज़रों में मजदूरों और उनके परिवार का जीवन कीड़े मकोड़े से ज़्यादा अहमियत नहीं रखता। खनन माफिया अंधाधुंध अवैध खनन में इस कदर अंधे हो गए कि दर्जनों पारेषण लाइन के नीचे तक उत्खनन कर डाला। जबकि नियमतः 440वोल्ट की पारेषण लाइन से दूर खनन किया जाना चाहिए था। अवैध खनन का यह खेल बदस्तूर नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अबाध गति से सतत प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है। फिलहाल यह मौत के कुंड अब तक सैकड़ों मज़लूम मज़दूरों की कब्रगाह बन चुकी है। आज भी रात के सन्नाटे में उनकी चीखें अक्सर सुनी जाती है। जो खदान से निकलकर कहीं पहाड़ियों में गुम हो जाती है। लहू से सने इस कत्लगाहों का काला सच जग जाहिर है। अंत में एक शेर बस बात ख़त्म, मज़दूर की बेवा और यतीम बच्चे किसके हाथों में अपना लहू तलाशे। तमाम शहर ने पहन रखे हैं दस्ताने।