Friday, March 29, 2024
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उत्तरप्रदेश की अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही :

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अखिलेन्द्र प्रताप सिंह

सरकारी व स्वतंत्र स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था ठहरी हुई है और इससे उबरने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। प्रदेश के ऊपर वित्तीय वर्ष 2022-23 में लगभग 6.66 लाख करोड़ रूपये का कर्जा है और प्रति व्यक्ति कर्ज 26000 रूपये से ज्यादा है
उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति सालाना आय 81398 रूपये है यानी एक माह में 7 हजार रूपये से भी कम आय है। रोजगार की हालत बेहद खराब है। प्रदेश में करीब 6 लाख सरकारी पद खाली पड़े हुए हैं। निजी क्षेत्र में महज 5616 स्टार्टअप का पंजीकरण हुआ है।

आखिर विकास के क्या हैं मायने ?क्या शहरीकरण बेरोजगारी को दूर कर पायेगा ?

प्रदेश में विकास के नाम पर मेट्रो, ग्लोबल समिट, एक्सप्रेस वे, स्मार्ट सिटी आदि की ही चर्चा होती है। एक डिलॉयट कम्पनी ने विकास के लिए राज्य सरकार को बड़े पैमाने पर शहरीकरण का सुझाव दिया है। उसका कहना है कि उत्तर प्रदेश की शहरी आबादी अभी भी 22 फीसदी है, जिसकी संख्या बढ़ाकर ही प्रदेश विकास कर सकता है। हालांकि अभी भी प्रदेश में बहुत सारे जिले हैं जिनकी शहरी आबादी अधिक है जैसे गौतमबुद्ध नगर 83.6 प्रतिशत, गाजियाबाद 81 प्रतिशत, लखनऊ 67.8 प्रतिशत, कानपुर नगर 66.7 प्रतिशत, झांसी 43.2 प्रतिशत, वाराणसी 43 प्रतिशत आदि परन्तु इन शहरों में भी बड़े पैमाने पर युवाओं में बेकारी है और आम शहरी की आमदनी में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता है।इससे यह तो साफ ही है कि अंधाधुंध शहरीकरण बेरोजगारी की समस्या को खत्म तो नहीं कर पायेगा हाँ नए उभरते इन शहरों में अवस्थापना सम्बन्धी समस्याओं का सामना लोगों को अलग से करना पड़ रहा है।

स्मार्ट सिटी और शहरीकरण का मकसद क्या है?

सरकार भी बड़े पैमाने पर प्रदेश में स्मार्ट सिटी बनाने की बात कर रही है। मकसद साफ है किसानों की जमीन शहरीकरण के नाम पर जैसे-तैसे कम दाम पर खरीद कर बिल्डर्स और कम्पनियों के हवाले करना। फिलहाल विपक्षी दल भी इसी तरह के विकास के मॉडल की बात करते रहे हैं और सरकार से इसी क्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता में उतरते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी और उच्च तकनीक केन्द्रित इस तरह के विकास की योजनाएं लोगों की गरीबी और बेकारी दूर करने में कतई सक्षम नहीं हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 2015-16 की तुलना में 2019-21 में 22 प्रतिशत लोगों की जोत में कमी आयी है। इससे स्वतः स्पष्ट है कि किसान अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जमीन बेच रहे हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 2018-19 में दो पहिया वाहन की खरीद में 36 प्रतिशत की गिरावट आई है। वहीं कार की खरीद में 9 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई है।

यह भी रिपोर्ट है कि इसी गरीबी के दौर में कारपोरेट घराने खासकर अम्बानी और अडानी ने अकूत सम्पत्ति बनाई है।

केन्द्र की मोदी सरकार के सहयोग से अडानी ने अपनी सम्पत्ति में भारी इजाफा किया है। इस समय उनकी सम्पत्ति 10.94 लाख करोड़ है जबकि 2014 में उनकी सम्पत्ति न्यूज क्लिक की रिपोर्ट के अनुसार महज 50.4 हजार करोड़ रूपये थी। उनकी सम्पत्ति अभी अम्बानी की सम्पत्ति से 3 लाख करोड़ रूपये अधिक है।

संसद में यह भी बताया गया कि पिछले पांच वित्तीय वर्षों में कर्जे के लगभग 10 लाख करोड़ रूपये कारपोरेट के माफ कर दिए गए या फिर किसी दूसरे रास्ते से इन कारपोरेट घरानों को टैक्स में छूट दे दी गयी।

फिलहाल इस बीच उच्च मध्य वर्ग के एक छोटे से हिस्से की भी आमदनी बढ़ी है। वर्ष 2021 की तुलना में 2022 में मर्सडीज, बेंज जैसी कारों की खरीद में 64 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह भी स्वतः स्पष्ट है कि आर्थिक असमानता में भी बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है।

प्रदेश में श्रमशक्ति के लिहाज से देखा जाए तो गरीब किसानों और निम्न मध्यम वर्ग के किसानों की संख्या सबसे बड़ी है। एक हेक्टेयर से कम छोटी जोतों की संख्या राजस्व परिषद् उत्तर प्रदेश से लिए आंकड़ों के अनुसार 1.91 करोड़ यानी 80 फीसदी है। एक से दो हेक्टेयर जोत के अंदर किसानों की संख्या 30 लाख यानी 12.6 फीसदी है। इन छोटी जोतों को सहकारी आधार पर यदि पुनर्गठित किया जाए तो फसलों की उपज में बढोत्तरी तो होगी ही साथ ही पूंजी निर्माण और प्रदेश के विकास में इनकी बड़ी भूमिका हो सकती है।

सहकारिता को प्रोत्साहन देने की बात तो दूर रही पूरे कृषि विकास पर सरकार अपने 6.15 लाख करोड़ के बजट का 2.8 प्रतिशत यानी 16-17 हजार करोड़ रूपये ही खर्च करती है। जो किसान गन्ना, धान, गेहूं आदि बाजार के लिए पैदा कर पाते हैं उन्हें अपनी उपज को बेचने और भुगतान पाने में गंभीर किस्म के संकट का सामना करना पड़ता है। हजारों करोड़ रूपये गन्ना किसानों के मिल मालिकों के ऊपर बकाया रहता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए धारावाहिक रूप से आंदोलित बड़े किसान आंदोलन के बावजूद सरकार ने लागत पर डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने से इंकार कर दिया है। यदि तीन-चार ग्रामसभाओं के क्लस्टर के आधार पर किसानों और व्यापारियों के सहयोग से नौकरशाही मुक्त मंडी समितियां बनती और समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद और भुगतान किया जाता तो किसानों की आर्थिक हालत में बड़ा बदलाव हो सकता था । कृषि आधारित उद्योग लगते तो खेती पर निर्भर अतिरिक्त श्रम से बचा जाता और बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मिलता। इसी तरह डेयरी, मत्स्य और अन्य क्षेत्रों में सहकारी उत्पादन की प्रणाली को मजबूत करने की जरूरत है।

खेत मजदूरों, दलितों, आदिवासियों, अति पिछड़े वर्गों में जमीन की बड़ी भूख दिखती है और काम के अभाव में बड़े पैमाने पर इन वर्गों के लोगों का पलायन दूसरे प्रदेशों में होता है जिसकी वजह से उनकी श्रम शक्ति का उपयोग अपने प्रदेश के विकास में नहीं हो पाता है।

सोनभद्र जिले में यह भी देखा गया कि लड़कों के अलावा लड़कियां भी समूह बनाकर बंगलौर जैसे शहर में जाकर काम करती हैं। यदि उनको यहां उच्च शिक्षा व काम के अवसर मिलते तो उनका पलायन रूक जाता और उनकी श्रम शक्ति प्रदेश के विकास में लगती।

यह तथ्य नोट करने लायक है कि हमारे प्रदेश में बैंक क्रेडिट डिपोजिट अनुपात में बड़ा अंतर है। वर्ष 2020-21 में बैंकों में यहां के लोगों का जमा धन 1287176 करोड़ और दिया गया ऋण 525691 करोड़ रूपये है।यह आंकड़ा यह बताने के लिए काफी है कि प्रदेश से पूंजी का पलायन प्रति वर्ष महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में हो जाता है। बैंकों में लोगों की जमा की गई धनराशि से स्व रोजगार के लिए ऋण मिलता तो लोगों का प्रदेश से पलायन एक हद तक रूक जाता। प्रदेश में साढ़े तीन लाख आंगनबाड़ी व सहायिकाएं और दो लाख दस हजार आशाएं है। इन लोगों को बहुत कम पैसे में काम करना पड़ता है। यदि इन्हें न्यूनतम वेतनमान मिलता तो मंदी के संकट से निपटने में बड़ी मदद मिलती और देश निर्माण में महिलाओं की बड़ी भूमिका बनती।

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