विनम्र होना आध्यात्मिक होने की प्रथम सीढी है.. आचार्य सुशील मिश्र
स्वामी विवेकानंद जी की जयंती के अवसर पर…
प्रयागराज । आध्यात्मिक होने का मतलब हमेशा विनम्र होना समझा गया है और दुर्भाग्य से, विनम्र होने का मतलब हमेशा नरम या कमज़ोर होना समझा जाता रहा है।
कमज़ोर लोग अपनी इच्छा से विनम्र नहीं होते; उनकी विनम्रता एक निश्चित अक्षमता से आ रही है। विनम्रता का मूल्य तभी है जब वो आपकी इच्छा से आये। जब आप हिंसक होने में सक्षम हैं, लेकिन फिर भी आप विनम्र होना चुनते हैं तब यह बहुत मूल्यवान है।
स्वामी विवेकानन्द के जीवन की एक बहुत सुन्दर घटना है। अपने गुरु रामकृष्ण के समाधि लेने के बाद, वो उनका संदेश पश्चिम तक ले जाना चाहते थे। इसके लिए वो शारदा देवी से, जो रामकृष्ण की पत्नी थीं, अनुमति लेने गए शारदा देवी रसोई में खाना बनाने में व्यस्त थीं। विवेकानंद ने कहा, “मैं पश्चिमी दुनिया में जाना चाहता हूं और अपने गुरु का संदेश फैलाना चाहता हूं। क्या मैं जाऊं?”
शारदा देवी जो कर रही थीं उसी में व्यस्त रहीं और ऊपर देखे बिना विवेकानंद से कहा, “क्या तुम मुझे वह चाकू दे सकते हो?”
विवेकानंद जी ने चाकू उठाया और उसे बहुत विनम्रता और बड़े ही सावधानी से शारदा देवी जी को दिया। शारदा देवी ने चाकू लिया, उसे एक तरफ रख दिया, और कहा, “तुम जा सकते हो।”
फिर विवेकानंद ने शारदा देवी से पूछा, “आपके पास काटने के लिए कोई सब्जी नहीं है। सब कुछ पहले से ही बर्तन में है। फिर आपने चाकू क्यों मांगा?”
उत्तर मिला, “मैं देखना चाहती थी कि तुम चाकू कैसे देते हो। तुम जा सकते हो और अपने गुरू का संदेश फैला सकते हो…”
यही है विनम्रता – इसलिए नहीं कि कोई देख रहा है, या आपको परखा जा रहा है। आप जिस तरह से चलते हैं, जिस तरह से धरती पर कदम रखते हैं, सांस लेते हैं, बैठते हैं, खड़े होते हैं, या दूसरे लोगों को देखते हैं, आपको सचेत रूप से अपने इन सब चीजों को निखारना होगा। अगर आप ध्यानमय हो जाएं, तो यह निखार स्वाभाविक रूप से आ जाएगा।