लीडर विशेष

मुहर्रम: एक ऐसा नववर्ष जिसकी शुभकामना कोई नहीं देता

हसन सोनभद्री
बचपन से ले कर आजतक किसको मुहर्रम का मातम, मलीदा, ताज़ियादारी और जुलूस  याद  नहीं होगा । तेज़ बजते नगाड़े, ढ़ोल-ताशे और अखाड़े, मजलिसो में नोहे और अलाव का मातम सब कुछ । ये पर्व अपनी एक अलग विशेषता इस लिए रखता है कि ये हमें प्रेरणा तो देता है, लेकिन ये दुख का पर्व है जो जुलूस में मातम के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है ।

इसके पीछे इक विशेष कारण है अगर धार्मिक इतिहास के परिपेक्ष में इसको देखें तो ये 10 मुहर्रम जिसको आशूरा का दिन कहते हैँ ये कर्बला कि घटना से पहले ईद का दिन अर्थात ख़ुशी का दिन हुआ करता  था । मिसाल के तौर पर आदम का जन्नत से निकाले जाने के बाद दुआ क़ुबूल होना, 40 दिनों के बाद मछली के पेट से पैग़म्बर यूनुस का सुरक्षित बाहर आना, पैग़म्बर अयूब का लाइलाज बीमारी से ठीक होना, पैग़म्बर नूह की प्राण रक्षक नाव का प्रलय के बाद जूदी पहाड़ पर पहुंचना इत्यादि , लेकिन 680 ई. में इराक में फ़रात नदी के किनारे कर्बला नामक स्थान पर भीषण तपती रेत पर यज़ीद की सेना द्वारा पैगम्बर मुहम्मद के नवासे हुसैन को बड़ी निर्ममता से 3 दिन प्यासा रखने के बाद समस्त परिवार जन समेत शहीद किया गया जिसके बाद से आशूरा के दिन को ग़म के दिन में बदल दिया गया ।

मुस्लिम इस दिन व्रत का रखना महत्वपूर्ण मानते हैँ ।
मुहर्रम की ताज़िआ दारी हमारे देश में 12वीं सदी से ही मनायी जा रही है जो आपसी भाई चारे और सौहार्द की इक मिसाल है कि देश के हर वर्ग और धर्म के लोग मिलजुल कर धर्म की अधर्म पर विजय और बलिदान को याद करते हैँ l ये पवित्र महीना हमें किसी भी अवस्था में सत्य को हिंसा के आगे ना झुकने की प्रेरणा देता रहेगा |

अब तक न मिली तश्ना लबी को निजात है

हाए लब-ए-हुसैन को प्यासी फ़रात है

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!