प्रकृति और पुरुष दोनों को समर्पित है लोहड़ी पर्व
आचार्य प. सुशील मिश्र
प्रयागराज । मकर संक्रांति से ठीक पहले लोहड़ी का पर्व मनाया जाता है। श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाना वाला यह पर्व विशेष रूप से पश्चिमी भारत के प्रांत में मनाया जाता है जिसका संबंध मूल प्रकृति माता सती और परम पुरुष भगवान शिव से है।
लोहड़ी में जलाते हैं अग्नि और तिल गुड़ की दी जाती है आहुति..
लोहड़ी पर्व की रात को आग जलाने और उसकी पूजा करने का बड़ा महत्व है। यह अग्नि मां सती के त्याग को ही समर्पित है। श्रीमद भागवत और शिव पुराण के अनुसार जब राजा दक्ष ने यज्ञ किया और उसमें सभी देवताओं को बुलाया लेकिन अपने बेटी सती और भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया तो उनकी बेटी सती शिव अवहेलना से व्यथित हो गईं और उन्होंने यज्ञ की अग्नि में खुद को ही समर्पित कर दिया।
शिव परम पुरुष हैं और सती मूल प्रकृति। लोककथाओं के अनुसार लोहड़ी पर जलाए गए अलाव की लपटें लोगों की प्रार्थनाओं को देवताओं तक ले जाती हैं, ताकि वर्षा अच्छी हो और फसल का सीधा संबंध वर्षा से है। जन आस्था है कि इस दिन मांगी गई हर मुराद पूरी होती है, देखा जाय तो यह पर्व शिव के प्रति सती के त्याग और परम उत्सर्ग जा स्मृति पर्व है।
इसके अलावा लोहड़ी पर जलाई जाने वाली अग्नि को लेकर
लोहड़ी शब्द ‘तिलोहड़ी’ यानी ‘तिल’ और ‘रोरही’ से बना है। तिल स्वयं में भगवान का पसीना है। किसी भी देव या पितृ आहुति में तिल ही अनिवार्य होता है। जीवन यज्ञ की सार्थकता समझने का इससे सुंदर पर्व क्या होगा। तिल से मतलब काली और सफेद तिल है और रोरही का अर्थ है गुड़। यह तिलोहड़ी से लोहड़ी बना है। अर्थात जीवन का सर्वोच्च उत्सर्ग करते समय भी मिठास हो, मधुरता हो।
लोहड़ी पर्व प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का पर्व है। इस दिन पहली फसल अग्नि को अर्पित करके प्रकृति को धन्यवाद दिया जाता है। जन सामान्य की दृष्टि से यह पर्व पहली फसल आने की खुशी में मनाया जाता है। साथ ही लोहड़ी का पर्व सर्दी के मौसम के खत्म होने का प्रतीक भी है. इस दिन ठंड चरम पर होती है और इसके बाद कम होने लगती है, जिसका सीधा संदेश है अज्ञान रूपी रात कितनी भी लंबी और सर्द हो ज्ञान रूपी दिन का उजाला अवश्य होगा।