लीडर विशेष

नए वर्ष में मीडिया सकारात्मक रचनात्मक और सृजनात्मक परिवर्तनों की संवाहक बनेगी.……

उम्मीद

आज वर्ष का अंतिम दिन है कल सूरज की खिलती धूप के साथ ही साल बदल जायेगा और उम्मीदों को भी नए पंख लगेंगे ।मैं सोचता हूँ,कितना कठिन रहा होगा 1901-1947 का दौर!जब न रेडियो था,न टीवी था,न प्राइवेट न्यूज चैनल थे,न सरकारी चैनल थे,न इतनी साक्षरता थी,न अखबारों की इतनी प्रसार संख्या थी, न टेलीफोन,न मोबाइल,न फेसबुक, न व्हॉट्स ऐप्प,न ट्वीटर,न इंस्टाग्राम,न डिजिटल मीडिया-फिर भी बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में लाल,बाल,पाल(पंजाब में लाला लाजपत राय,महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक और बंगाल में विपिन चन्द्र पाल) ने ब्रिटिश हुकूमत के नाक में दम कर रखा था।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने घोषणा की-स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।…और अपने अखबार ‘केसरी’ के माध्यम से अपने अभियान में जुटे रहे।लगभग डेढ़ दशक तक भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन थोड़े से पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों का बौद्धिक,राजनैतिक प्रयास दिखता है।
10अप्रैल,1917को मोहनदास कर्मचन्द गांधी के बिहार और चम्पारण में प्रवेश के साथ ही इस स्वतंत्रता संग्राम में किसानों,मजदूरों,शिक्षको,विद्यार्थियों,वकीलों ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित की।लगभग हर राज्य में लोगों ने अखबार निकाले, हर राजनेता ने अखबार निकाले।बंगाल में आनन्द बाजार पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका,चेन्नई में दी हिन्दु,केरल में मलयालम मनोरमा, महाराष्ट्र में केसरी और फ्री प्रेस जर्नल्स,पंजाब में पंजाब केसरी।अविभाजित बिहार की बात करूँ तो डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा की पहल पर दी सर्चलाईट शुरू हुआ। (दी बिहार जर्नलिस्ट लिमिटेड अब हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाईम्स का स्थानीय संस्करण प्रकाशित करता है लेकिन प्रेस का नाम संभवत: अभी भी सर्चलाईट प्रेस ही है।पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नेशनल हेराल्ड शुरू किया जिसका टैगलाइन था- Freedom is in peril,save it with all your might.गाँधीजी स्वयं हरिजन अखबार निकालते थे।कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ‘प्रताप’ अखबार निकालते थे,जिसमें शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने भी काम किया था।बाद के दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना वैचारिक साप्ताहिक पाँचजन्य निकाला।साम्यवादी बुद्धिजीवियों ने जनयुग(हिन्दी)ही नहीं कई भाषाओं में कई पत्र-पत्रिकाएं निकाली।

लेकिन,मैं उस दौर में पैदा नहीं हुआ था।मैंने पत्र-पत्रिकाओं को देखना पढ़ना,जानना,समझना शुरू किया-1971 में,जिस दौर में भारत-पाक युद्ध भी हुआ।फिर, 1974में जेपी आन्दोलन के दौर में अखबारों की भीड़ में अंग्रेजी साप्ताहिक The Everyman’s और प्रजानीति(सम्पादक-प्रफुल्ल चंद्र ओझा’मुक्त’)निकला,जो आन्दोलन का मुखपत्र रहा।
(इसी प्रयोग ने 1985 में दैनिक ‘जनसत्ता’ के रूप में विस्तार पाया।)इस दौर में अज्ञेय,धर्मवीर भारती, नागार्जुन,रेणु,फिराक गोरखपुरी,कुलदीप नैयर,जैसों की एक लम्बी फौज थी, जो आन्दोलन को वैचारिक ऊर्जा उपलब्ध कराते थे।
पत्रकारिता के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक और बड़ी पूँजी की जरूरतों ने पत्रकारिता में वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध पत्रकारों को व्यावसायिक प्रबन्धकों ने विस्थापित कर दिया।दैनिक ‘आज’ जैसे बड़े अखबार अप्रासंगिक हो गए।
न्यूज चैनलों की बाढ़ ने वैचारिक पत्रकारों को पूँजीपतियों के सामने घुटने टेकने को बाध्य किया।पत्रकारिता कैरियर और व्यवसाय हो गई।विलय और अधिग्रहण के दौर में बड़े पूँजीपतियों ने बड़े-बड़े चैनल खरीद लिए।आज राजनैतिक हित,व्यावसायिक हित की रक्षा के लिए कोई भी राजनेता,व्यवसायी संवाददाता, सम्पादक से बात करना नहीं चाहता,उसे महत्व नहीं देता,सीधे मालिक से ही बात करता है,निबटता और सलटता है और मालिक अपने व्यावसायिक हित के अनुरूप संवाददाता,एंकर या सम्पादक रखता और निकालता है।एक-एक एंकर की मासिक आय लाखों और चैनलों का व्यवसाय करोड़ों में हो गया।सत्ता राजस्व वसूली से प्राप्त आर्थिक संसाधनों का दुरूपयोग और अपव्यय झूठे तथ्यों और आंकड़ों के प्रचार,प्रसार और विस्तार में कर रही है।वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध साहित्यकारों/पत्रकारों/एंकरों/बुद्धिजीवियों के समक्ष यह एक गंभीर चुनौती है।

लेकिन,हर चुनौती एक समाधान भी पेश करती है।लगभग 6वर्ष पहले ‘द वॉयर’ ने डिजिटल पत्रकारिता के क्षेत्र में गंभीर उपस्थिति दर्ज की।सत्य हिन्दी ने भी आशुतोष,अंबरीश कुमार,आलोक जोशी, हरजिंदर,मुकेश कुमार,विजय त्रिवेदी आदि की एक बड़ी टोली खड़ी कर ली है।सिद्धार्थ वर्दराजन,आरफा खानम शेरवानी,अभिषार शर्मा,पुण्य प्रसून बाजपेयी, ओम थानवी,रवीश कुमार,राघव बहल आदि ने पूँजीवादी पत्रकारिता के समक्ष एक गंभीर वैचारिक चुनौती पेश की है।कई बार इनकी प्रस्तुतियों से मैं सहमत नहीं होता-लेकिन इनकी दिलेरी,इनकी हिम्मत, सत्ता से सवाल पूछने और टकराने के इनके साहस, इनकी प्रतिबद्धता का मैं सम्मान करता हूँ।
‘द वॉयर’ के दो वर्ष पूरे होने पर एक इंटरव्यू में रविश कुमार ने तथ्यों,तर्कों और आँकड़ों के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की बड़े न्यूज चैनलों ने निरंकुश सत्ता के सामने हथियार डाल दिए हैं और झूठ,मनगढंत,बेबुनियाद बातें प्रस्तुत कर आम जनमानस को दिग्भ्रमित करने की नापाक कोशिश कर रहे हैं।(मैं ऐसा नहीं मानता-आम जनमानस के पास सूचना क्रांति के दौर में आज अनगिनत विकल्प हैं, और उसे दिग्भ्रमित करना अब कठिन ही नहीं,असंभव है।)फिर यही अपील पुण्य प्रसून बाजपेयी और अभिसार शर्मा ने की।बल्कि, अभिसार शर्मा ने एक डेग आगे बढ़ते हुए विपक्षी दलों से कूड़ा-कचरा राजनैतिक परिचर्चा में अपना प्रवक्ता न भेजने की अपील की।ये लोग जो कुछ करना चाहते हैं, उसका यही एकमात्र उपाय है, यह मैं नहीं मानता।लेकिन, अँधेरे के खिलाफ एक मुकम्मल आवाज के लिए इनकी प्रयोगधर्मिता और आशावादिता का मैं सम्मान करता हूँ।

किसान आन्दोलन को गोदी मीडिया आतंकवादी, खालिस्तानी,मवाली और न जाने क्या-क्या स्थापित करने में लगी रही,लेकिन डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के भरोसे किसान आन्दोलन को जनसमर्थन,वैचारिक ऊर्जा और ताकत मिलती रही। किसान आन्दोलन ने सत्याग्रह के बल पर जिस प्रकार सत्ता को घुटने टेकने को मजबूर किया,उसने वैकल्पिक मीडिया की नई संभावनाओं को जन्म दिया है।प्रदेश ही नहीं प्रमंडल,जिला,अनुमंडल और प्रखंड स्तर पर मीडियाकर्मियों की एक नई फौज सामने आई है,जो मीडिया से पूरी प्रतिबद्धता से जुड़ा हुआ जरूर है,लेकिन उसकी रोजी-रोटी मीडियाकर्म से नहीं चलती।इन लोगों ने सूदूर इलाकों की समस्याओं,दूभर जीवन शैली और चुनौतियों को विश्वपटल पर प्रस्तुत किया है
पंकज कुमार श्रीवास्तव,
स्नातक(पत्रकारिता),स्नातकोत्तर(प्रबंधन)
सेवानिवृत्त प्रबंधक,झारखंड राज्य ग्रामीण बैंक डाल्टनगंज(झारखंड)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!