1960में जब काजी नजरूल इस्लाम को उच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण दिया गया,तो भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे,जो स्वयं एक श्रेष्ठ इतिहासकार और साहित्यकार थे।यही नहीं,तब तक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ही इस पद को सुशोभित कर रहे थे, जिनकी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति निष्ठा और समर्पण असंदिग्ध थी।हिंदी में लिखी उनकी आत्मकथा एक श्रेष्ठ कृति है। जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेन्द्र प्रसाद के दौर में काजी नजरूल इस्लाम को पद्मभूषण मिलना साहित्य के क्षेत्र में उनके अवदान को रेखांकित करता है,वह भी तब जब डेढ़ दशक से ज्यादा समय से अस्वस्थता के कारण साहित्यिक अवदान नहीं कर पा रहे थे।
बांग्लादेश देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने काजी नजरूल इस्लाम की विद्रोही कविताओं से अभिप्रेरणा ग्रहण की और दिसंबर,1971में जब बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ,तो काजी नजरूल इस्लाम को राष्ट्रकवि घोषित किया गया।तब वह बांग्लादेश के नागरिक भी नहीं थे, बांग्लादेश में रहते भी नहीं थे।शेख मुजीबुर्रहमान की सरकार ने पूरे आदर और सम्मान के साथ भारत सरकार से आग्रह किया कि उन्हें राष्ट्रकवि घोषित किया गया है, इसलिए उन्हें बांग्लादेश को सौंपने की कृपा की जाए।भारत सरकार ने बांग्लादेश सरकार के आग्रह को स्वीकार करते हुए विद्रोही कवि नजरूल इस्लाम को उनके परिवारजनों की सहमति से सपरिवार बांग्लादेश में बसने की व्यवस्था की।तब अस्वस्थता के कारण साहित्य सेवा से विमुख हुए उन्हें लगभग 3 दशक हो चुके थे।
गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की तरह ही नज़रूल ने औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी और परिणामस्वरूप उनकी कविताओं ने रवींद्रनाथ द्वारा स्थापित साहित्यिक प्रथाओं का पालन नहीं किया। इसके कारण उन्हें रवींद्रनाथ के अनुयायियों की आलोचना का सामना करना पड़ा।अपने मतभेदों के बावजूद, नज़रूल ने रवींद्रनाथ टैगोर को एक संरक्षक के रूप में देखा।रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1923 में अपना नाटक “बसंत” नज़रूल को समर्पित किया। नज़रूल ने टैगोर को धन्यवाद देने के लिए “अज सृष्टि शुखर उल्लाशे” कविता लिखी।
काजी नज़रुल इस्लाम कवि, संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा और दार्शनिक थे।उनकी कविता में विद्रोह के स्वर होने के कारण उनको ‘विद्रोही कवि’ के नाम से जाना जाता है। उनकी कविताओं में ‘मनुष्य के ऊपर मनुष्य का अत्याचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद’ प्रमुखता से उभरता है।उन्होंने धार्मिक, जाति-आधारित और लिंग-आधारित सहित सभी प्रकार की कट्टरता और कट्टरवाद का विरोध किया। नज़रूल ने लघु कथाएँ, उपन्यास और निबंध लिखे, लेकिन उन्हें उनके गीतों और कविताओं के लिए जाना जाता है। उन्होंने बंगला में ग़ज़ल गीतों की शुरुआत की और अपने कार्यों में अरबी और फ़ारसी शब्दों के व्यापक उपयोग के लिए भी जाने गए ।
किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर दलों के साथ काम करते-करते उन्होने कविता, नाटक एवं साहित्य के सम्बन्ध में सम्यक ज्ञान प्रापत किया।नजरुल ने लगभग ३००० गानों की रचना की तथा साथ ही अधिकांश को स्वर भी दिया। इनको आजकल ‘नजरुल संगीत’ या “नजरुल गीति” नाम से जाना जाता है। मुसलमान होने पर भी उनके गीतों में कृष्ण भक्ति और उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह शामिल थे।
अधेड़ उम्र में वे ‘पिक्स रोग’ से ग्रसित हो गए जिसके कारण शेष जीवन वे साहित्यकर्म से अलग हो गए।
उन्होंने ब्रिटिश राज की आलोचना की और अपनी काव्य रचनाओं जैसे “बिद्रोही ” (” रिबेल’) और “भांगर गान” ( ‘द सॉन्ग ऑफ डिस्ट्रक्शन’), [के माध्यम से क्रांति का आह्वान किय ]साथ ही अपने प्रकाशन धूमकेतु (‘द कॉमेट’) में भी ऐसा ही किया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी राष्ट्रवादी सक्रियता के कारण उन्हें औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बार-बार कैद किया गया। जेल में रहते हुए, नज़रूल ने “राजबंदी जबबन्दी” (‘एक राजनीतिक कैदी का बयान’) लिखा।
नजरूल ने अन्य विषयों के अलावा बंगाली, संस्कृत , अरबी , फारसी साहित्य और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का अध्ययन शिक्षकों के अधीन किया, जो उनके समर्पण और कौशल से प्रभावित थे।नज़रूल ने रवींद्रनाथ टैगोर और शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के कार्यों के साथ-साथ फारसी कवि हाफ़िज़ , उमर खय्याम और रूमी के कार्यों को बड़े पैमाने पर पढ़ा ।
1921 में कोमिला की अपनी यात्रा के दौरान , नज़रूल एक युवा बंगाली हिंदू महिला, प्रमिला देवी से मिले, जिनसे उन्हें प्यार हो गया, और उन्होंने 25 अप्रैल 1924 को शादी कर ली। ब्रह्म समाज ने एक मुस्लिम से शादी करने के लिए ब्रह्म समाज की सदस्य प्रमिला की आलोचना की। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने नजरूल की हिंदू महिला से शादी के लिए आलोचना की। उनके लेखन के लिए उनकी आलोचना भी की गई थी। विवाद के बावजूद, नजरूल की लोकप्रियता और “विद्रोही कवि” के रूप में प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।
अपनी पत्नी और छोटे बेटे बुलबुल के साथ, नज़रूल 1926 में ग्रेस कॉटेज, कृष्णानगर में बस गए । उनका काम बदलना शुरू हो गया क्योंकि उन्होंने कविता और गीत लिखे, जो मजदूर वर्ग की आकांक्षाओं को व्यक्त करते थे, उनके काम का एक क्षेत्र जिसे “मास म्यूजिक” के रूप में जाना जाता था। 1928में नजरूल ने ग्रामोफोन कंपनी एचएमवी के लिए एक गीतकार, संगीतकार और संगीत निर्देशक के रूप में काम करना शुरू किया।उनके द्वारा लिखे गए गीत और संगीत भारतीय ब्रॉडकास्टिंग कंपनी सहित पूरे भारत के रेडियो स्टेशनों पर प्रसारित किए गए ।
[नज़रूल की पत्नी प्रमिला 1939 में गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं और कमर से नीचे लकवा मार गया। अपनी पत्नी के इलाज के लिए उसने अपने ग्रामोफोन रिकॉर्ड और साहित्यिक कृतियों की रॉयल्टी 400 रुपये में गिरवी रख दी।
बांग्लादेश और भारत में शिक्षा और संस्कृति के कई केंद्रों की स्थापना और उनकी स्मृति को समर्पित किया गया था।आसनसोल, पश्चिम बंगाल, भारत में काजी नजरूल विश्वविद्यालय का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। जातीय कबी काजी नजरूल इस्लाम विश्वविद्यालय , मयमसिंह, बांग्लादेश में उनके नाम पर एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय है। कबी नजरूल गवर्नमेंट कॉलेज,ढाका में, बांग्लादेश का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है। नज़रूल अकादमी नामक एक सांस्कृतिक संस्था है, जो पूरे बांग्लादेश में फैली हुई है। पश्चिम बंगाल के अंडाल में काजी नजरूल इस्लाम हवाई अड्डा , भारत का पहला निजी ग्रीनफील्ड हवाई अड्डा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनके नाम पर एक कुर्सी रखी गई है और पश्चिम बंगाल सरकार ने उनकी स्मृति को समर्पित एक सांस्कृतिक केंद्र, राजारहाट में एक नज़रुल तीर्थ खोला है।25 मई, 2020 को गूगल ने उनका 121वां जन्मदिन गूगल डूडल के साथ मनाया ।
धूमकेतु एक्सप्रेस , डोलोनचापा एक्सप्रेस बांग्लादेश रेलवे की ट्रेनों का नाम उनके साहित्यिक कार्यों के नाम पर रखा गया है। भारतीय रेलवे में अग्निबीना एक्सप्रेस भी उनके नाम का स्मरण कराती है।